Gokarunanidhi ( गोकरुणानिधि ) - Chapter 3

उपनियम
नाम

१ - इस सभा का नाम "गोकृष्यादिरक्षिणी" है ।

उद्देश

२ - इस सभा के उद्देश वे ही हैं जो कि इसके नियमों में वर्णन किये गये हैं ।

३ जो लोग इस सभा में नाम लिखाना चाहें और इस के उद्देशानुकूल आचरण करना चाहें वे इस सभा में प्रविष्‍ट हो सकते हैं, परन्तु उनकी आयु १८ वर्ष से न्यून न हो । जो लोग इस सभा में प्रविष्‍ट हों वे 'गोरक्षकसभासद्' कहलावेंगे ।

४ - जिन का नाम इस सभा में सदाचार से एक वर्ष रहा हो और वे अपने आय का शतांश वा अधिक मासिक वा वार्षिक इस सभा को दें, वे 'गोरक्षकसभासद्' हो सकते हैं । और सम्मति देने का अधिकार केवल गोरक्षकसभासदों ही को होगा ।

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अ) गोरक्षकसभासद् बनने के लिये गोकृष्यादिरक्षिणी सभा में वर्ष भर नाम रहने का नियम किसी व्यक्ति के लिये अन्तरंगसभा शिथिल भी कर सकती है । इस सभा में वर्ष भर रहकर गोरक्षकसभासद् बनने का नियम गोकृष्यादिरक्षिणी सभा के दूसरे वर्ष से काम आवेगा ।

(
ब) राजा, सरदार वा बड़े बड़े साहूकार आदि को इस सभा के सभासद् बनने के लिये शतांश ही देना आवश्यक नहीं, वे एकवार वा मासिक वा वार्षिक अपने उत्साह वा सामर्थ्यानुसार दे सकते हैं ।

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स) अन्तरंगसभा किसी विशेष हेतु से चन्दा न देने वाले पुरुष को भी गोरक्षकसभासद् बना सकती है ।

(
द) नीचे लिखी हुई विशेष दशाओं में उन सभासदों की भी, जो गोरक्षकसभासद् नहीं बने, सम्मति ली जा सकती है

(
१) जब नियमों में न्यूनाधिक शोधन करना हो ।

(
२) जब कि विशेष अवस्था में अन्तरंगसभा उनकी सम्मति लेनी योग्य और आवश्यक समझे ।

५ - जो इस सभा के उद्देश के विरुद्ध कर्म्म करेगा वह न तो गोरक्षक और न गोरक्षकसभासद् गिना जावेगा ।

६ - गोरक्षकसभासद् दो प्रकार के होंगे - एक साधारण और दूसरे माननीय । माननीय गोरक्षकसभासद् वे होंगे जो शतांश, १०) रु० मासिक वा इससे अधिक देवें अथवा एक वार २५०) रुपया दें, वा जिसको अन्तरंगसभा विद्या आदि श्रेष्‍ठ गुणों से माननीय समझे ।

७ - यह सभा दो प्रकार की होगी - एक साधारण, दूसरी अन्तरंग ।

८ - साधारण सभा तीन प्रकार की होवे - १. मासिक, २. षाणमासिक और ३. नैमित्तिक ।

९ - मासिकसभा - प्रतिमास एक वार हुआ करेगी, उसमें महीने भर का आय-व्यय और सभा के कार्यकर्त्ताओं की क्रियाओं का वर्णन किया जावे जो कि कथन योग्य हो ।

१० - षाणमासिक सभा - कार्तिक और वैशाख के अन्त में हुआ करे, उस में आप्‍तोक्त विचार, मासिक सभा का कार्य, प्रत्येक प्रकार का आय-व्यय समझना और समझाना होवे ।

११ - नैमित्तिक सभा - जब कभी मन्त्री, प्रधान और अन्तरंगसभा आवश्यक कार्य जाने उसी समय यह सभा हो और उसमें विशेष कार्यों का प्रबन्ध होवे ।

१२ - अन्तरंगसभा - सभा के सब कार्यप्रबन्ध के लिये एक अन्तरंगसभा नियत की जावे, और इसमें तीन प्रकार के सभासद् हों - एक प्रतिनिधि, दूसरे प्रतिष्‍ठित और तीसरे अधिकारी ।

१३ - प्रतिनिधि सभासद् अपने अपने समुदायों के प्रतिनिधि होंगे, और उन्हें उनके समुदाय नियत करेंगे । कोई समुदाय जब चाहे अपने प्रतिनिधि को बदल सकता है ।

१४ - प्रतिनिधि सभासदों के विशेष कार्य ये होंगे -

(
अ) अपने अपने समुदायों की सम्मति से अपने को विज्ञ रखना ।

(
ब) अपने अपने समुदायों को अन्तरंगसभा के कार्य, जो कि प्रकट करने के योग्य हों, बतलाना ।

(
स) अपने अपने समुदायों से चन्दा इकट्ठा करके कोषाध्यक्ष को देना ।

१५ - प्रतिष्‍ठित सभासद् विशेष गुणों के कारण प्रायः वार्षिक, नैमित्तिक और साधारण सभा में नियत किये जावें, प्रतिष्‍ठित सभासद् अन्तरंगसभा में एक तिहाई से अधिक न हों ।

१६ - प्रति वैशाख की सभा में अन्तरंगसभा के प्रतिष्‍ठित सभासद् और अधिकारी वार्षिक साधारण सभा में फिर से नियत किये जावें, और कोई पुराना प्रतिष्‍ठित सभासद् और अधिकारी पुनर्वार नियुक्त हो सकता है ।

१७ - जब वर्ष के पहिले किसी प्रतिष्‍ठित सभासद् और अधिकारी का स्थान रिक्त हो, तो अन्तरंगसभा आप ही उसके स्थान पर किसी और योग्य पुरुष को नियत कर सकती है ।

१८ - अन्तरंगसभा कार्य के प्रबन्ध निमित्त उचित व्यवस्था बना सकती है, परन्तु वह नियमों और उपनियमों से विरुद्ध न हो ।

१९ - अन्तरंगसभा किसी विशेष कार्य के करने और सोचने के लिये अपने में से सभासदों और विशेष गुण रखने वाले सभासदों को मिलाकर उपसभा नियत कर सकती है ।

२० - अन्तरंगसभा का कोई सभासद् मन्त्री को एक सप्‍ताह के पहिले विज्ञापन दे सकता है कि कोई विषय सभा में निवेदन किया जावे, और वह विषय प्रधान की आज्ञानुसार निवेदन किया जावे । परन्तु जिस विषय के निवेदन करने में अन्तरंगसभा के पांच सभासद् सम्मति दें, वह अवश्य निवेदन करना ही पड़े ।

२१ - दो सप्‍ताह के पीछे अन्तरंगसभा अवश्य हुआ करे, और मन्त्री और प्रधान की आज्ञा से वा जब अन्तरंगसभा के पाँच सभासद् मन्त्री को पत्र लिखें, तो भी हो सकती है ।

२२ - अधिकारी छः प्रकार के होंगे - (१) प्रधान, (२) उपप्रधान, (३) मन्त्री, (४) उपमन्त्री, (५) कोषाध्यक्ष, (६) पुस्तकाध्यक्ष । मन्त्री, कोषाध्यक्ष, पुस्तकाध्यक्ष इनके अधिकारों पर आवश्यकता होने से एक से अधिक पुरुष भी नियत हो सकते हैं । और जब किसी अधिकार पर एक से अधिक पुरुष नियत हों तो अन्तरंगसभा उन्हें कार्य बांट देवे ।

२३ - प्रधान - प्रधान के निम्नलिखित अधिकार और काम होवें -

(
१) प्रधान अन्तरंगसभा आदि सब सभाओं का सभापति समझा जावे ।

(
२) सदा सभा के सब कार्यों के यथावत् प्रबन्ध करने और सर्वथा सभा की उन्नति और रक्षा में तत्पर रहे । सभा के प्रत्येक कार्य्य को देखे कि वे नियमानुसार किये जाते हैं वा नहीं, और स्वयं नियमानुसार चले ।

(
३) यदि कोई विषय कठिन और आवश्यक प्रतीत हो, तो उसका यथोचित प्रबन्ध उसी समय करे, और उसके बिगड़ने में उत्तरदाता वही होवे ।

(
४) प्रधान अपने प्रधानत्व के कारण सब उपसभाओं का, जिन्हें अन्तरंगसभा संस्थापन करे, सभासद् हो सकता है ।

२४ - उपप्रधान - इस के ये कार्य्य कर्त्तव्य हैं -

प्रधान के अनुपस्थित होने पर उसका प्रतिनिधि होवे । यदि दो या अधिक उपप्रधान हों तो सभा की सम्मति के अनुसार उनमें से कोई एक प्रतिनिधि किया जावे, परन्तु सभा के सब कार्य्यों में प्रधान को सहायता देनी उसका मुख्य कार्य है ।

२५ - मन्त्री - मन्त्री के निम्नलिखित अधिकार और कार्य हैं -

(
१) अन्तरंगसभा की आज्ञानुसार सभा की ओर से सब के साथ पत्र-व्यवहार रखना ।

(
२) सभाओं का वृत्तान्त लिखना और दूसरी सभा होने से पहले ही पूर्व वृत्तान्त पुस्तक में लिखना वा लिखवा देना ।

(
३) मासिक अन्तरंगसभाओं में उन गोरक्षकों वा गोरक्षक-सभासदों के नाम सुनाना जो कि पिछली मासिकसभा के पीछे सभा में प्रविष्‍ट वा उससे पृथक हुये हों ।

(
४) सामान्य प्रकार से भृत्यों के कार्य पर दृष्‍टि रखना, और सभा के नियम, उपनियम और व्यवस्थाओं के पालन पर ध्यान रखना ।

(
५) इस बात का भी ध्यान रखना कि प्रत्येक गोरक्षक-सभासद् किसी न किसी समुदाय में हों, और इसका भी कि प्रत्येक समुदाय ने अपनी ओर से अन्तरंगसभा में प्रतिनिधि किया होवे ।

(
६) पहिले विज्ञापन दिये जाने पर मान्यपुरुषों को सत्कारपूर्वक बिठलाना ।

(
७) प्रत्येक सभा में नियत काल पर आना और बराबर ठहरना ।

२६ - कोषाध्यक्ष - कोषाध्यक्ष के नीचे लिखे अधिकार और कार्य हैं -

(
१) सभा के सब आयधन का लेना, उसकी रसीद देना और उसको यथोचित रखना ।

(
२) किसी को अन्तरंगसभा की आज्ञा के विना रुपया न देना किन्तु मन्त्री और प्रधान को भी उस प्रमाण से देवे कि जितना अन्तरंगसभा ने उनके लिये नियत किया हो, अधिक न देना । और धन के उचित व्यय के लिये वही अधिकारी, जिसके द्वारा वह व्यय हुआ हो, उत्तरदाता होवे ।

(
३) सब धन के व्यय का रीतिपूर्वक बहीखाता रखना, और प्रतिमास अन्तरंगसभा में हिसाब को बहीखाते समेत परताल और स्वीकार के लिये निवेदन करना ।

पुस्तकाध्यक्ष - पुस्तकाध्यक्ष के अधिकार और कार्य ये होवें -

(
१) जो पुस्तकालय में सभा की स्थिर और विक्रय की पुस्तक हों उन सबकी रक्षा करे और पुस्तकालय सम्बन्धी हिसाब भी रक्खे और पुस्तकों के लेनेदेने का कार्य भी करे ।

मिश्रित नियम


२८ - सब गोरक्षक-सभासदों की सम्मति निम्नलिखित दशाओं में ली जावे -

(१) अन्तरंगसभा का यह निश्‍चय हो कि किसी साधारणसभा के सिद्धान्त पर निर्भर न करना चाहिये, किन्तु गोरक्षक-सभासदों की सम्मति जाननी चाहिये ।

(
२) सब गोरक्षक सभासदों का बीसवां वा अधिक अंश इस निमित्त मन्त्री के पास पत्र लिख भेजे ।

(
३) जब बहुत से व्ययसम्बन्धी वा प्रबन्धसम्बन्धी नियम अथवा व्यवस्था-सम्बन्धी कोई मुख्य विचारादि करना हो । अथवा जब अन्तरंगसभा सब गोरक्षक सभासदों की सम्मति जाननी चाहे ।

२९ - जब किसी सभा में थोड़े समय के लिये कोई अधिकारी उपस्थित न हो, तो उसके स्थान में उस समय के लिये किसी योग्यपुरुष को अन्तरंगसभा नियत कर सकती है ।

३० - यदि किसी अधिकारी के स्थान पर वार्षिक साधारण सभा में कोई पुरुष नियत न किया जावे, तो जब तक उस के स्थान पर नियत न किया जाय, वही अधिकारी अपना काम करता रहे ।

३१ - सब सभा और उपसभाओं का वृत्तान्त लिखा जाया करे, और उसको सब गोरक्षक-सभासद् देख सकते हैं ।

३२ - सब सभाओं का कार्य तब आरम्भ हो, जब न्यून से न्यून एक तिहाई सभासद् उपस्थित हों ।

३३ - सब सभाओं और उपसभाओं के सारे काम बहुपक्षानुसार निश्‍चित हों ।

३४ - आय का दशांश समुदाय धन में रक्खा जावे ।

३५ - सब गोरक्षक और गोरक्षक-सभासदों को इस सभा की उपयोगी वेदादि विद्या जाननी और जनानी चाहिये ।

३६ - सब गोरक्षक और गोरक्षक-सभासदों को उचित है कि लाभ और आनन्द समय में सभा की उन्नति के लिये उदारता और पूर्ण प्रेमदृष्‍टि रक्खें ।

३७ - सब गोरक्षक और गोरक्षक-सभासदों को उचित है कि शोक और दुःख के समय में परस्पर सहायता करें, और आनन्दोत्सव में निमन्त्रण पर सहायक हों, छोटाई-बड़ाई न गिनें ।

३८ - कोई गोरक्षक भाई किसी हेतु से अनाथ वा किसी की स्त्री विधवा अथवा सन्तान अनाथ हो जाये अर्थात् उनका जीवन न हो सकता हो, और यदि गोकृष्यादिरक्षिणी सभा उनको निश्‍चित जान ले, तो यह सभा उनकी रक्षा में यथाशक्ति यथोचित प्रबन्ध करे ।

३९ - यदि गोरक्षक-सभासदों में किन्हीं का परस्पर झगड़ा हो, तो उनको उचित है कि वे आपस में समझ लेवें, वा गोरक्षक सभासदों की न्याय उपसभा द्वारा उसका न्याय करा लें । परन्तु अशक्यावस्था में राजनीति द्वारा भी न्याय करा लेवें

४० - इस गोकृष्यादिरक्षिणी सभा के व्यवहार में जितना-जितना लाभ होगा वह-वह सर्व-हितकारी काम में लगाया जावे, किन्तु यह महाधन तुच्छ कार्य में व्यय न किया जावे । और जो कोई इस गोकृष्यादि की रक्षा के लिये जो धन है उसको चोरी से अपहरण करेगा, वह गोहत्या के पाप लगने से इस लोक और परलोक में महादुःखभागी अवश्य होगा ।

४१ - सम्प्रति इस सभा के धन का व्यय गवादि पशु लेने, उनका पालन करने, जंगल और घास के क्रय करने, उनकी रक्षा के लिये भृत्य वा अधिकारी रखने, तालाब, कूप, बावड़ी अथवा बाड़ा के लिये व्यय किया जावे । पुनः अत्युन्नत होने पर सर्वहित कार्यों में भी व्यय किया जावे ।

४२ - सब सज्जनों को उचित है कि इस गोरक्षक धन आदि समुदाय पर स्वार्थ-दृष्‍टि से हानि करना कभी मन से भी न विचारें, किन्तु यथाशक्ति इस व्यवहार की उन्नति में तन, मन, धन से सदा परम प्रयत्‍न किया ही करें ।

४३ - इस सभा के सब सभासदों को यह बात अवश्य जाननी चाहिये कि जब गवादि पशु रक्षित होके बहुत बढ़ेंगे, तब कृषि आदि कर्म और दुग्ध घृत आदि की वृद्धि होकर सब मनुष्यादि को विविध सुख लाभ अवश्य होगा । इसके विना सब का हित सिद्ध होना सम्भव नहीं ।

४४ - देखिये, पूर्वोक्त रीत्यानुसार एक गौ की रक्षा से लाखों मनुष्यादि को लाभ पहुँचाना, और जिसके मारने से उतने ही की हानि होती है, ऐसे निकृष्‍ट कर्म के करने को आप्‍त विद्वान् कभी अच्छा न समझेगा ।

४५ - इस सभा के जो पशु प्रसूत होंगे उस-उस का दूध एक मास तक उसके बछड़े को पिलाना और अधिक उसी पशु को अन्न के साथ खिला देना चाहिये, और दूसरे मास में तीन स्तनों का दूध बछड़े को देना और एक भाग लेना चाहिये, तीसरे मास के आरम्भ से आधा दूध दुह लेना और आधा बछड़े को तब तक दिया करें कि जब तक गौ दूध देवे ।

४६ - सभासदों को उचित है कि जब-जब किसी को स्वरक्षित पशु देवे तब-तब न्यायनियमपूर्वक वयवस्थापत्र ले और देकर जब वह पशु असमर्थ हो जाय, उसके काम का न रहे और उसके पालन करने में सामर्थ्य न हो, तो अन्य किसी को न दे सके, किन्तु पुनरपि सभा के आधीन करे ।

४७ - इस सभा की अन्तरंग सभा को उचित है किन्तु अत्यावश्यक है कि उक्त प्रकार से अप्राप्‍त पशुओं की प्राप्‍ति, प्राप्‍तों की रक्षा, रक्षितों की वृद्धि और बढ़े हुए पशुओं से नियमानुसार और सृष्‍टिक्रमानुकूल उपकार लेना, अपने अधिकार में सदा रखना, अन्य किसी को इसमें स्वाधीनता कभी न देवे ।

४८ - जो कि यह बहुत उपकारी कार्य है इसलिये इसका करने वाला इस लोक और परलोक में स्वर्ग अर्थात् पूर्ण सुखों को अवश्य प्राप्‍त होता है ।

४९ - कोई भी मनुष्य इस सभा के पूर्वोक्त उद्देशों को किये विना सुखों की सिद्धि नहीं कर सकता ।

५० - क्या ऐसा कोई भी मनुष्य सृष्‍टि में होगा कि जो अपने सुख दुःखवत् दूसरे प्राणियों का सुख दुःख अपने आत्मा में न समझता हो ।

५१ - ये नियम और उपनियम उचित समय पर वा प्रतिवर्ष में यथोचित विज्ञापन देने पर शोधे वा घटाये बढ़ाये जा सकते हैं ।।

ओ३म् सह नाववतु सह नौ भुनक्‍तु सह वीर्यं करवावहै
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ओं शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

धेनु: परा दयापूर्वा यस्यानन्दाद्विराजते ।
आख्यायां निर्मितस्तेन ग्रन्थो गोकरुणानिधिः ॥१॥

मुनिरामांकचन्द्रेऽब्दे तपस्यस्यासिते दले ।
दशम्यां गुरुवारेऽलंकृतोऽयं कामधेनुपः ॥२॥


॥ इति गोकरुणानिधिः ॥

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